मदर टेरेसा एक नाम जिसे सुनते ही त्याग, सेवा और करुणा की छवि उभरती है। कोलकाता की गंदी बस्तियों से लेकर दुनिया भर में उनके द्वारा किए गए सेवा कार्यों तक, उन्हें व्यापक रूप से मानवता की प्रतीक के रूप में देखा जाता है। उन्होंने 1950 में मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की (जिसे जाना जाता है मदर टेरेसा मिशनरीज ऑफ चैरिटी), जिसका मकसद “सबसे गरीबों में सबसे गरीब” की सेवा करना था। उन्होंने कुष्ठ रोगियों, अनाथ बच्चों, और बेघरों के लिए कई सेवाकेंद्र स्थापित किए, और इसके लिए उन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। 2016 में वेटिकन द्वारा उन्हें 'संत' की उपाधि भी दी गई।
यहीं से मदर टेरेसा पर कई विवाद होता है ,मदर टेरेसा संत या नहीं,मदर टेरेसा धर्म प्रचार,मदर टेरेसा कट्टरपंथ ।
मदर टेरेसा की आलोचना ,मदर टेरेसा का मानवतावाद ?
इस चमकती छवि के पीछे एक अंधेरा पहलू भी है—ऐसे आलोचक जो कहते हैं कि मदर टेरेसा की संत की छवि दरअसल एक बहुत ही सोच-समझकर रची गई धार्मिक और राजनीतिक कथा है। आलोचकों के अनुसार, उनकी कार्यप्रणाली में मानवीय गरिमा की अनदेखी, गरीबी का महिमामंडन और अंध-धार्मिकता को बढ़ावा देने वाली थी।
मदर टेरेसा के सबसे बड़ा आलोचक क्रिस्टोफर हिचेन्स ने क्या कहा था? क्या मदर टेरेसा सच में गरीबों की मदद करती थीं?
ब्रिटेन में जन्मे और स्वतंत्र विचारों के लेखक क्रिस्टोफर हिचेंस ने मदर टेरेसा की आलोचना करते हुए उन्हें "दु:ख का संप्रदाय" चलाने वाली धार्मिक रूढ़िवादी करार दिया। हिचेंस का आरोप था कि मदर टेरेसा ने गरीबी को जड़ से मिटाने की बजाय उसे एक ‘ईश्वरीय परीक्षण’ के रूप में महिमामंडित किया। उनके अनुसार, “टेरेसा को दरिद्रता से प्रेम था, न कि दरिद्रों से।”
क्या मदर टेरेसा कट्टर ईसाई थीं? मदर टेरेसा और वेटिकन के अंदर का रूप ?
हिचेंस ने मदर टेरेसा पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री *Hell's Angel* में यह भी दावा किया कि उन्होंने जानबूझकर कोलकाता को 'नरक' जैसा प्रस्तुत किया ताकि पश्चिमी दुनिया से बड़े पैमाने पर दान मिल सके। उस दान का उपयोग बेहतर इलाज या सुविधा बढ़ाने में कम और धार्मिक प्रचार तथा चर्च से जुड़ी गतिविधियों में अधिक होता था।
हिचेंस के आरोप यहीं खत्म नहीं होते। वह मदर टेरेसा को "एक राजनीतिक गुप्तचर" भी कहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि टेरेसा ने तानाशाहों और भ्रष्ट नेताओं से संबंध बनाए रखे, जैसे हैती के तानाशाह जीन-क्लाउड डुवालियर और अल्बानिया के कम्युनिस्ट शासक एंवर होक्षा से। इसके पीछे धार्मिक और राजनीतिक फायदे देखे जा सकते हैं।
2003 में डॉ. अरूप चटर्जी ने, जिन्होंने मदर टेरेसा पर कई वर्षों तक शोध किया, उनके बनाए आश्रमों की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए। उनके अनुसार इन केंद्रों में सफाई की व्यवस्था बेहद खराब थी, एक ही सूई का कई बार इस्तेमाल होता था और मरीजों को जरूरी चिकित्सा देखभाल तक नहीं मिलती थी। डॉ. चटर्जी का तर्क था कि टेरेसा के संगठन ने "दया" के नाम पर पीड़ितों को उनके हाल पर छोड़ दिया और कष्ट को ईश्वरीय योजना कह कर उचित ठहराया।
एक अन्य आलोचक, मियामी के हेमली गोंदालेथ, ने मदर टेरेसा के कोलकाता स्थित केंद्र में स्वयंसेवक के रूप में दो महीने तक काम किया था। उनका अनुभव भी कुछ इसी तरह का रहा। उन्होंने कहा, “मुझे यह देखकर झटका लगा कि वहां कितनी लापरवाही से काम होता था। उपकरण पुराने थे, देखभाल की कोई प्रणाली नहीं थी और गरीबों की सेवा के नाम पर दया की गलत तस्वीर बनाई गई थी।”
संत घोषित किए जाने के लिए वेटिकन की प्रक्रिया में कम से कम दो चमत्कारों की पुष्टि जरूरी होती है। मदर टेरेसा के पहले चमत्कार के रूप में 2003 में मोनिका बेसरा नाम की एक बंगाली आदिवासी महिला के पेट के अल्सर का ठीक होना बताया गया। यह दावा किया गया कि यह चमत्कार उनकी तस्वीर पर प्रार्थना करने के बाद हुआ। हालांकि, चिकित्सकीय रिकॉर्ड बताते हैं कि मोनिका का इलाज दवाइयों से हुआ था।
दूसरा चमत्कार 2008 में ब्राजील के एक व्यक्ति के ब्रेन ट्यूमर के ठीक होने से जुड़ा है, जिसे वेटिकन ने 2015 में सत्यापित किया। लेकिन भारतीय रेशनलिस्ट सनल एदमारुकु जैसे आलोचकों ने इन चमत्कारों को “अवैज्ञानिक और जांच से परे” बताया।
आलोचना पर चुप्पी क्यों? क्या मदर टेरेसा सच में गरीबों की मदद करती थीं?
टेरेसा की आलोचना करना आज भी कई लोगों को "गरीब विरोधी" बना देता है। आलोचक कहते हैं कि टेरेसा की संत छवि इतनी मजबूत है कि उससे असहमत होने पर व्यक्ति को नास्तिक या अमानवीय करार दिया जाता है। यही कारण है कि उनके खिलाफ आवाज़ें बहुत कम सुनाई देती हैं, जबकि भीतर ही भीतर असंतोष बना रहता है।
ये निष्कर्ष मैं आप तय करिए की ?
क्या मदर टेरेसा को संत घोषित करना सही था?
मदर टेरेसा के जीवन का मूल्यांकन एक जटिल विषय है। एक ओर वे थीं जिन्होंने जीवनभर गरीबों, बीमारों और असहायों की सेवा की। दूसरी ओर, उनकी सेवा की शैली पर गहरे नैतिक और व्यावहारिक प्रश्न खड़े होते हैं। क्या दुख को महिमामंडित करना सही है?
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