बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में राज्य के नागरिकों के लिए एक बड़ी और लोकलुभावन घोषणा की — राज्य के सभी उपभोक्ताओं को 125 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने का वादा। यह घोषणा निस्संदेह गरीब और मध्यम वर्गीय उपभोक्ताओं के लिए तात्कालिक राहत देने वाली है। क्या प्रकार की मुफ्त सुविधाओं की राजनीति के खतरों को समझते हैं। अत्यधिक लोकलुभावन योजनाओं अर्थव्यवस्था को अस्थिर बना देता है। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ आज भी बड़ी संख्या में लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, मुफ्त बिजली जैसी योजना सामाजिक न्याय की दिशा में एक कदम मानी जा सकती है। यह ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में जीवन स्तर सुधारने, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने और घरेलू खर्चों को कम करने में मदद कर सकती है।बिहार जैसे राज्य में, जहां प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से कम है, मुफ्त बिजली लोगों के लिए आर्थिक सहारा बन सकती है। श्रीलंका का संकट लोकलुभावन वादों का सबक? श्रीलंका ने 2019-20 के दौरान करों में भारी छूट दी, बिजली-पानी मुफ्त करने जैसे कई फैसले लिए और कृषि के लिए रासायनिक खाद पर पाबंदी लगा दी। इन फैसलों ने पहले तो जनता को राहत दी, लेकिन राजकोषीय घाटा तेजी से बढ़ता गया। आय में भारी गिरावट और खर्चों में बढ़ोतरी ने देश की अर्थव्यवस्था को दिवालियेपन की कगार पर ला खड़ा किया। परिणामस्वरूप 2022 में श्रीलंका को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से बेलआउट पैकेज लेना पड़ा। जनकल्याणकारी योजनाएं तभी तक कारगर हैं जब तक वे *राजकोषीय अनुशासन* के भीतर संचालित की जाती हैं। हिमाचल प्रदेश की स्थिति: चुनावी वादों का वित्तीय भार हिमाचल प्रदेश में हालिया सरकार ने मुफ्त बिजली, पानी और अन्य सुविधाओं के वादे किए। हालांकि इनसे जनसमर्थन तो मिला, लेकिन राज्य पर कर्ज का बोझ काफी बढ़ गया। वर्तमान में हिमाचल की वित्तीय स्थिति चिंता का विषय बनी हुई है, जहां सरकार को वेतन, पेंशन और ऋण भुगतान के लिए बाहरी मदद की आवश्यकता पड़ रही है। हिमाचल का उदाहरण यह बताता है कि अगर मुफ्त योजनाएं बिना दीर्घकालिक योजना के लागू की जाएं, तो वे राज्य के लिए वित्तीय आपदा बन सकती है। मुफ्त की राजनीति बनाम सतत विकास ? भारत में "रेवड़ी कल्चर" की बहस कोई नई नहीं है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर नीति आयोग तक ने इस पर चिंता जताई है। अगर मुफ्त योजनाएं सतत विकास, निवेश, रोजगार और बुनियादी ढांचे के खर्चों को नुकसान पहुँचाती हैं, तो यह राज्य और देश के लिए दीर्घकालिक संकट पैदा कर सकती हैं।
दूसरी ओर, ये योजनाएं केवल जरूरतमंदों तक सीमित हों और वित्तीय संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए — तो वे समाजिक न्याय और समावेशी विकास का हिस्सा बन पाए।
समाधान क्या हो?
1. **लक्षित लाभार्थी पहचान**: मुफ्त बिजली जैसी योजनाएं केवल गरीब और निम्न मध्यम वर्ग तक सीमित रखी जाएं। 2. **सौर ऊर्जा और वैकल्पिक स्रोतों पर निवेश**: अगर राज्य खुद बिजली उत्पादन में आत्मनिर्भर हो जाए, तो मुफ्त बिजली देना अधिक व्यावहारिक हो सकता है। 3. **वित्तीय अनुशासन**: कोई भी योजना लागू करने से पहले उसके वित्तीय प्रभावों का मूल्यांकन और दीर्घकालिक रोडमैप आवश्यक है। 4. **जनता में जागरूकता**: नागरिकों को भी समझना होगा कि मुफ्त सेवाएं सीमित और जिम्मेदारी के साथ इस्तेमाल की जाएं, अन्यथा यह सुविधा लंबे समय तक टिकाऊ नहीं रह पाएगी।
संतुलन ही कुंजी है ?
भारत के लोकतंत्र में लोकलुभावन योजनाओं का आकर्षण हमेशा रहेगा, लेकिन आज की जरूरत यह है कि राजनीतिक निर्णयों में *सामाजिक न्याय* और *वित्तीय स्थिरता* दोनों के बीच संतुलन बना रहे।
अंततः, अगर मुफ्त बिजली योजना को *सुनियोजित, सीमित और आर्थिक दृष्टिकोण से विवेकपूर्ण तरीके* से लागू किया जाए, तो यह बिहार जैसे राज्य में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की दिशा में प्रभावी कदम हो सकता है। लेकिन अगर यह योजना केवल वोट पाने का जरिया बन जाए, तो वह श्रीलंका और हिमाचल प्रदेश के रास्ते पर ही जाएगी — और उसका अंत संकट में ही होगा।