21वीं सदी को तकनीकी प्रगति, वैश्वीकरण और लोकतंत्र की गहराई के लिए जाना जाता है। परंतु इसी सदी में एक चौंकाने वाली और खतरनाक प्रवृत्ति ने सिर उठाया है—नव-नाज़ी और अतिवादी दक्षिणपंथी संगठनों का उदय । यह प्रवृत्ति विशेष रूप से यूरोप और अमेरिका में स्पष्ट रूप से देखी जा रही है। जहाँ इन संगठनों ने राजनीति, समाज और सोशल मीडिया मैं अपनी मजबूत कर रहा है। कुछ संक्षेप मैं नाज़ीवाद क्या है समझते? नाज़ीवाद (Nazism), 20वीं सदी के मध्य में जर्मनी में हिटलर द्वारा स्थापित एक फासीवादी और नस्लवादी विचारधारा थी, जो आर्य नस्ल को श्रेष्ठ मानती थी और यहूदी, रोमा, समलैंगिक, विकलांग व अन्य समुदायों के प्रति घोर घृणा रखती थी। द्वितीय विश्व युद्ध और होलोकॉस्ट (होलोकॉस्ट हिटलर द्वारा यूरोपीय यहूदियों का व्यापक नरसंहार था )जैसे काले अध्याय इसी विचारधारा की देन हैं। ऐसा सोचा गया था कि नाज़ीवाद का अंत 1945 में हो गया । यूरोप में नव-नाज़ी संगठनों का विस्तार पर 21वीं सदी में इसके नए स्वरूप में उदय ने सबको चौंका दिया। जर्मनी में "एएफडी" (Alternative for Germany) जैसे दक्षिणपंथी दल शरणार्थियों और इस्लाम के खिलाफ ज़हरीला प्रचार कर रहे हैं। हालांकि ये खुद को नाज़ी नहीं कहते, लेकिन उनकी विचारधारा में नाज़ी काल की गूंज सुनाई देती है। ऑस्ट्रिया में भी "फ्रीडम पार्टी" जैसी पार्टियों को नव-नाज़ी संगठनों का समर्थन मिल रहा है। फ्रांस की "नेशनल रैली" और ग्रीस की "गोल्डन डॉन" जैसी पार्टियाँ सीधे तौर पर नस्लीय विचारधारा, प्रवासी-विरोध और राष्ट्रवाद के उग्र रूप को बढ़ावा देती हैं। "गोल्डन डॉन" के नेताओं पर हिंसा और हत्या जैसे गंभीर आरोप भी लगे हैं। हंगरी और पोलैंड जैसे देशों में नव-नाज़ी झुकाव वाली सरकारें प्रेस स्वतंत्रता, न्यायपालिका और मानवाधिकारों पर अंकुश लगा रही हैं। हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान खुले तौर पर "ईसाई राष्ट्र" की बात करते हैं और मुस्लिम व यहूदी प्रवासियों को देश के लिए खतरा बताते हैं। वह अमेरिका जो दुनिया मैं कहता की 21वीं सदी तकनीकी प्रगति, वैश्वीकरण और लोकतंत्र का है, परन्तु अमेरिका में नव-नाज़ी संगठनों का उदय हो रहा है। चार्लटसविल्ले आधुनिक नाज़ी का चेहरा बन रहा है ,2017 में अमेरिका के वर्जीनिया राज्य में हुए "यूनाइट द राइट" मार्च में खुले तौर पर स्वस्तिक झंडे, नाज़ी नारे और नस्लवादी भाषण दिए गए। इस मार्च में हिंसा हुई, जिसमें एक महिला की मौत भी हो गई। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर नव-नाज़ी प्रचार का बुक सेल हो राहा है , सोशल मीडिया और विचारधारा प्लेटफॉर्म्स जैसे "4chan","8kun" "QAnon", "Proud Boys", "Atomwaffen Division" पर नव-नाज़ी विचारधारा का प्रचार तेजी से फैल रहा है। इनको ट्रंप युग और दक्षिणपंथी उभार से नया बल मिला। डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में "White Supremacy" (श्वेत वर्चस्व यह विश्वास है कि श्वेत लोग अन्य जातियों के लोगों से श्रेष्ठ हैं ) कई बार ट्रंप के बयानों ने इन समूहों को मान्यता और प्रोत्साहन दिया। उदाहरण के तौर पर, "Very fine people on both sides" ( ट्रंप का कहना है की हमे समझना चाहिए कि छोटे लोग ही टैक्स देते हैं और टैक्स धोखाधड़ी के आरोप में जेल जाते है ,जिन्हें वो अपने घर में भी नहीं आने देंगे। वो सिर्फ़ उन्हीं लोगों को बर्दाश्त करते हैं जो बड़ी रकम दान कर सकें।) हमे नव-नाज़ीवाद के उदय के पीछे कारण जाना चाइये , युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी, शहरी गरीबों में असंतोष और मध्यम वर्ग की आर्थिक असुरक्षा ने नव-नाज़ी संगठनों को समर्थन दिया है। ये संगठन लोगों की हताशा को प्रवासियों या अल्पसंख्यकों पर थोपते हैं। यूरोप में सीरियाई शरणार्थियों और अमेरिका में लैटिन अमेरिकी प्रवासियों के खिलाफ भय और घृणा ने नव-नाज़ी प्रवृत्तियों को बल दिया है। नफ़रत फैलाने वाले लोग इन समुदायों को देश की संस्कृति और अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बताते हैं।सोशल मीडिया नव-नाज़ी संगठनों के लिए प्रचार का सबसे शक्तिशाली हथियार बन गया है। ये संगठन फेसबुक, ट्विटर, रेडिट और यूट्यूब के ज़रिये नए अनुयायियों को जोड़ते हैं, झूठी सूचनाएं फैलाते हैं और कट्टरपंथ को सामान्य बनाने की कोशिश करते हैं। हमें खतरनाक संकेत मिल राहा है , अमेरिका और यूरोप में यहूदी, मुस्लिम और अश्वेत समुदायों पर बढ़ते हमले इसी मानसिकता की उपज हैं। नव-नाज़ीवाद केवल अल्पसंख्यकों को नहीं, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। अमेरिका में 6 जनवरी 2021 को कैपिटल हिल पर हमला लोकतंत्र पर सबसे बड़ा खतरा था। क्या हम सबसे बड़ा खतरा को रोक सकते हैं ,मेरा जवाब हां में है। हमें स्कूलों और कॉलेजों में इतिहास, मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों की शिक्षा को और मज़बूत करना ज़रूरी है। सरकारों को डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर नफ़रत फैलाने वाले कंटेंट पर कार्रवाई करनी चाहिए , वोट बैंक से ऊपर उठकर। नव-नाज़ी हिंसा में शामिल लोगों पर त्वरित न्याय और कठोर सज़ा देना ज़रूरी है। विविधता और समावेश की भावना को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को सामाजिक और सरकारी समर्थन मिलना चाहिए। मेरा निष्कर्ष है की , 21वीं सदी के इस तकनीकी और वैश्विक युग में नाज़ीवाद जैसी विचारधाराओं का पुनरुत्थान चिंताजनक है। यूरोप और अमेरिका में यह केवल अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र, मानवाधिकार और सामाजिक सद्भाव के लिए भी एक गहरी चुनौती बन चुकी है। हमें इस प्रवृत्ति को केवल निंदा करके नहीं, बल्कि शिक्षा, कानून, जागरूकता और समाजिक एकजुटता के माध्यम से जड़ से समाप्त करना होगा।
यदि हम चुप रहे, तो इतिहास खुद को दोहराने से नहीं हिचकिचाएगा।