21वीं सदी की दुनिया तेज़ी से बदल रही है। AI, अंतरिक्ष विकास , बायोटेक्नोलॉजी विकास जैसी तकनीकों ने विकास की रफ्तार को कई गुना बढ़ा दिया है। ऐसे समय में भारत जैसे महान राष्ट्र के कुछ हिस्से भाषाई अस्मिता के संघर्षों में उलझे हुए हैं। बेंगलुरु, मुंबई, तमिलनाडु और कई अन्य शहरों की हाल की घटनाएं इस बात की गवाही देती हैं कि कैसे भाषा अब अभिव्यक्ति का माध्यम न होकर पहचान और टकराव का औजार बनती जा रही है। यह स्थिति चिंताजनक है क्योंकि इससे न केवल सामाजिक समरसता को ठेस पहुंचती है, बल्कि विकास की संभावनाएं भी सीमित हो जाती हैं। भाषा मूल रूप से संवाद का माध्यम है, पर जब इसे पहचान, वर्चस्व और राजनीति से जोड़ा जाता है, तो यह विभाजन का कारण बन जाती है। भारत में, जहां 22 अनुसूचित भाषाएं और सैकड़ों बोलियाँ हैं, वहाँ भाषाई विविधता हमारी ताकत होनी चाहिए। पर दुर्भाग्य से, कुछ हिस्सों में यह विविधता टकराव में बदलती दिख रही है। हाल के वर्षों में कई उदाहरण सामने आए हैं जहाँ गैर-स्थानीय लोगों को उनके उच्चारण या भाषा के कारण सार्वजनिक परिवहन, किराये के मकान या नौकरियों में भेदभाव का सामना करना पड़ा है। कुछ राज्यों में स्थानीय भाषा का दबाव इतना अधिक है कि दूसरे राज्यों से आए हुए भारतीय खुद को वहां असहज और अस्वीकारित महसूस करते हैं। क्या यह सही है?क्या भाषा विकास का शत्रु बन रही है? जब गाँवों के बच्चे अंग्रेज़ी को ‘अंग्रेजों की भाषा’ मानकर उससे घबराते हैं, और जब शहरों में अंग्रेज़ी बोलने वालों को प्रगतिशील तो हिंदी बोलने वालों को ‘स्थानीय’ या ‘कमतर’ समझा जाता है तो यह दोहरापन हमारे समाज की सोच को जड़ बना देता है। भाषाई श्रेष्ठता की यह मानसिकता हमारी रचनात्मकता, सोच और संभावनाओं को सीमित कर देती है। हिंदी भाषी युवाओं को दक्षिण भारत में उपेक्षा मिलती है, तो वही बंगाली, मराठी या तमिल भाषी लोगों को उत्तर भारत में कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। यह स्थिति उस एक भारत की भावना को ठेस पहुँचाती है, जिसका सपना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था। दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं जैसे चीन, जापान, दक्षिण कोरिया आदि ने एक समान भाषा नीति अपनाई है। इन देशों में स्थानीय भाषा में ही तकनीकी शिक्षा, विज्ञान और व्यापार की भाषा विकसित की गई है। वे अंग्रेज़ी को अपनी संस्कृति पर हावी नहीं होने देते, लेकिन दूसरी भाषाओं के प्रति खुले भी रहते हैं। इन देशों ने भाषा को विकास में बाधा नहीं, बल्कि सहयोगी के रूप में प्रयोग किया है। वे युवाओं को अपनी मातृभाषा में ही एआई, रोबोटिक्स और साइबर सुरक्षा जैसी जटिल तकनीकों की शिक्षा दे रहे हैं। वे गर्व की जगह उत्पादकता को प्राथमिकता देते हैं, और यही कारण है कि वे भारत की तुलना में चार गुना तेज़ी से बढ़ रहे हैं। क्या हमें शर्म आनी चाहिए हिंदी या तमिल बोलने में? भारत में हिंदी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है, लेकिन यह भी सत्य है कि तमिल, मराठी, मलयालम, कन्नड़ और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की भी अपनी गौरवशाली विरासत है। किसी भाषा को श्रेष्ठ या हीन कहना एक सांस्कृतिक अपराध है। किसी साथी भारतीय को केवल इसलिए भेदभाव का शिकार बनाना कि वह तुम्हारी भाषा नहीं जानता, न केवल असंवैधानिक है बल्कि असभ्य भी है। संविधान हमें भाषाई स्वतंत्रता देता है, और यह अधिकार हमें मिल-जुल कर रहने का मार्ग भी दिखाता है। भारत को आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है समावेशिता की। जब एक बिहारी नौजवान बेंगलुरु में नौकरी ढूंढ़ता है, तो वह देश के लिए ही योगदान देने आता है। जब एक तमिल भाषी युवा मुंबई में स्टार्टअप शुरू करता है, तो वह भारत की अर्थव्यवस्था को आगे ले जा रहा होता है। भाषा को पहचान का आधार नहीं, पूल का आधार बनाना होगा। हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ सीमा पार से आने वाले विचारों और तकनीकों को अपनाने की दौड़ है। हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा कि क्या हम एक ऐसा भारत बना रहे हैं जो आपसी विवादों में उलझा है, या वह भारत जिसे वैश्विक इनोवेशन का केंद्र बनना है? भारत की असली ताकत विविधता में एकता है - भारत का मूल दर्शन "वसुधैव कुटुम्बकम्" है पूरी दुनिया एक परिवार है। अगर हम इस दर्शन को मानते हैं, तो हमें अपने ही देशवासियों से भाषा के आधार पर दूरी नहीं बनानी चाहिए। भारत की ताकत उसकी भाषाई, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधता है ,इसे विभाजन का नहीं, नव निर्माण का माध्यम बनाना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि जब हम किसी को “तुम हमारी भाषा नहीं जानते” कहकर दूर करते हैं, तो हम भारत को कमजोर कर रहे होते हैं। जबकि जब हम कहते हैं “आओ, मिलकर सीखें, साझा करें, आगे बढ़ें,” तब हम भारत को भविष्य के लिए तैयार कर रहे होते हैं। हमें एक ऐसे भारत की जरूरत है जहाँ भाषा संवाद का सेतु हो, दीवार नहीं। जहाँ कोई भी भारतीय, किसी भी राज्य में जाकर खुद को बाहरी नहीं महसूस करे। जहाँ हिंदी, तमिल, मराठी, कन्नड़, बंगाली सभी को समान सम्मान मिले, और अंग्रेज़ी को जरूरत के हिसाब से साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाए, न कि श्रेष्ठता के प्रतीक के रूप में। भविष्य उन्हीं का है जो एकता, नवाचार और समावेशिता को अपनाएंगे। भारत को भी यही मार्ग चुनना होगा। आइए, हम भाषा को अपनी शक्ति बनाएं, न कि कमजोरी। क्योंकि — विविधता में ही हमारी एकता है, और यही है भारत की असली पहचान।
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